Monday 9 October 2017

चित्तमंतर्गतं   दुष्टं तीर्थस्नानान्न शुद्ध्यति ।।
शतशोथ    जलैर्धौतं सुराभांडमिवाशुचि ।।
दानमिज्यातपःशौचं तीर्थसेवा श्रुतं तथा ।
सर्वाण्येतान्यतीर्थानि यदि भावो न निर्मलः ।।        
 
"चित्त के दूषित रहने पर केवल तीर्थ स्नान से सिद्धि नहीं होती जैसे  मदिरा के पात्र को चाहे सौ बार जल से धोया जाए, वह अपवित्र ही है, वैसे ही जब तक मन का भाव शुद्ध नहीं है तब तक उसके लिए दान, यज्ञ, तप, शौच, तीर्थ सेवन और स्वाध्याय- सभी व्यर्थ है ।"

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