प्राप्तव्यमर्थं लभते मनुष्यो
देवोऽपि तं लङ्घयितुं न शक्तः।
तस्मान्न शोचामि न विस्मयो मे
यदस्मदीयं न हि तत्परेषाम् ॥
मनुष्य को जो प्राप्त होना होता है, उसका उल्लंघन करने में देवता भी समर्थ नहीं हैं इसलिए मुझे न आश्चर्य है और न शोक क्योंकि जो मेरा है वह किसी दूसरे का नहीं है॥
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