शान्तितुल्यं तपो नास्ति न संतोषात्परं सुखम्। न तृष्णया: परो व्याधिर्न च धर्मो दया परा:|।
शान्ति के समान कोई तप नही है, संतोष से श्रेष्ठ कोई सुख नही, तृष्णा से बढकर कोई रोग नही और दया से बढकर कोई धर्म नहीं।
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