Tuesday 24 October 2017


पंगो ! धन्यस्त्वमसि न गृहं यासि योऽर्थी परेषाम्
धन्योऽन्ध ! त्वं धनमदवतां नेक्षसे यन्मुखानि ।
श्लाध्यो मूक ! त्वमपि कृपणं स्तौषि नार्थाशयायः
स्तोतव्यस्त्वं बधिर् ! न गिरं यःखलानां शृणोपि ॥

हे पंगु ! तू धन्य है कि अर्थांध होकर धनवान के घर नहीं जाता । हे अंधे ! तू धन्य है कि धन के मद में प्रचुर लोगों के मुँह नहीं देखता । हे गूँगे ! तू धन्य है कि धन पाने की आशा से कंजूस की स्तुति नहीं करता । हे बेहरे ! तू भी स्तुतितुल्य है क्यों कि तू दुर्जनों की वाणी नहीं सुनता ।

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