Saturday 8 July 2017

दृष्टान्तो नैव दृष्टस्त्रिभुवनजठरे सद्गुरोर्ज्ञानदातुः
स्पर्शश्चैत्तत्र कल्प्यः स नयति यदहो स्वर्णतामश्मसारम्
न र्स्पशत्वं तथापि श्रितचरणयुगे सद्गुरुः स्वीयशिष्ये
स्वीयं साम्यं विधत्ते भवति निरुपमस्तेन वा लौकिकोऽपि॥

तीनों लोक (स्वर्ग, पृथ्वी, पाताल)में ज्ञान देनेवाले गुरु के लिए कोई उपमा नहीं दिखाई देती । गुरु को पारसमणि के जैसा मानते है, तो वह ठीक नहीं है, कारण पारसमणि केवल लोहे को सोना बनाता है, पर स्वयं जैसा नहि बनाता ! सद्गुरु तो अपने चरणों का आश्रय लेनेवाले शिष्य को अपने जैसा बना देता है; इस लिए गुरुदेव के लिए कोई उपमा नहि है, गुरु तो अलौकिक है ।

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