“अन्तर्गतमलो दुष्टस्तीर्थस्नानशतैरपि ।
न शुध्यति यथा भाण्डं सुराया दाहितं च सत् ।।” (चाणक्य-नीतिः–११.०७)
अर्थः–जिसका अन्तःकरण अपवित्र है, ऐसा दुष्ट मनुष्य सैकडों बार तीर्थ-स्नान करने पर भी शुद्ध नहीं होता, जैसे मदिरा का पात्रजलाया भी जाये तो भी शुद्ध नहीं होता ।
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