जीविते यस्य जीवन्ति विप्रा मित्राणि बान्धवा:। सफलं जीवितं तस्य आत्मार्थे को न जीवति ? जिसके जीने से ब्राह्मण, मित्र और भाई जीते हैं, उसी का जीवन सफल है और केवल अपने स्वार्थ के लिए कौन नहीं जीता है ?
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