छिन्नोऽपि चन्दनतरुर्न जहाति गन्धं,
वृद्धोऽपि वारणपतिर्न जहाति लीलाम्।
यन्त्रार्पितो मधुरतां न जहाति चेक्षुः,
क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान् कुलीनः॥
मनुष्य में जन्म के साथ ही स्वाभाविक गुणों का अविर्भाव होता है तथा वे मृत्यु तक उसके साथ रहते हैं। इस संदर्भ में आचार्य चाणक्य कहते हैं जिस प्रकार कट जाने के बाद भी चन्दन वृक्ष की सुगंध समाप्त नहीं होती, वृद्ध होने के बाद भी हाथी की काम-पिपासा शांत नहीं होती, कोल्हू पिसने के बाद भी ईख की मिठास नहीं जाती, उसी प्रकार उच्च कुल में जन्मा शील-गुण से सम्पन्न मनुष्य धनहीन हो जाए तो भी उसकी विनम्रता, विनयशीलता और सदाचरण नष्ट नहीं होते। वह विकट परिस्थिति में भी सद्व्यवहार ही करता है।
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